बन्दरों की सभ्यता

                                

बन्दरों की सभ्यता

कुछ अंधेरा था

कुछ दूरी थी

मुझे लगा जैसे बन्दरों का एक झुण्ड

खाने की नींद पर

झगड़ते हुए झुका है।

मैं सड़क पर उसी ओर जा रहा था

कुछ अँधेरा कम हुआ, कुछ दूरी कम हुई तो मैंने जाना कि ये बन्दर नहीं थे आदमी थे जो खाने पर बन्दरों की तरह झपटे थे

 ये बस्ती में महामारी के दिन थे जब मैं आदतन कुछ पीकर परदे पर वह दृश्य देखकर बाहर आ गया था जिसमें सड़क पर शहर से गाँव की ओर भागते जुलूस में एक तरफ बैल और दूसरी तरफ आदमी एक गाड़ी में जुते थे

शायद इसी वजह से,

मुझे आदमी बन्दर लगे थे क्योंकि इसमें मेरा अपराध-बोध भी शामिल था कि बस्ती में महामारी के वक्त भी मैं दारू पी रहा था जब भूख ने आदमी को बन्दर बना दिया था जैसे कि मैं बन्दर नहीं था

यह बन्दरों की नयी सभ्यता थी जिसमें एक दारू पीता था और अनेक रोटी के लिए तरसते थे

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