लोकतंत्र की आत्म कथा

 

(1) मैं भूख की कोख से पैदा हुई थी जब पेरिस के नागरिक बैस्टाइल के किले की दीवार के साये में 'रोटी-रोटी' चिल्ला रहे थे और परेशान रानी चीख़ी थी, 'रोटी नहीं है तो उन्हें केक दो'

यह मेरी पितृ-विडम्बना की शुरुआत थी क्योंकि शासक मेरे पिता थे और शोषित जनता मेरी माता

मैं जम्हूरियत

उन्हीं की बेटी हूँ मेरी उम्र अभी तीन सौ वर्ष भी नहीं हुई

लेकिन मैं धरती की पहली असली बेटी हूँ जो एक दिन धरती को तार देगी जब सब दूध की बहती नदियों में एक साथ नहाएँगे

अभी धरती का आत्म-संघर्ष

जारी है जो बैस्टाइल से शुरू हुआ था

(2) मेरी माँ जवान है।

जो बूढ़ी-सी लगती है उसके चेहरे पर आड़ी-तिरछी लकीरें हैं। जो झुर्रियाँ नहीं हैं- नन्हीं लकीरें श्रम के स्मृति चिह्न हैं

वह पिता के खाने के बाद

बचा खुचा खाती है।

उसका पैरहन कुछ गन्दा सा है जिस पर कुछ नामालूम से धब्बे हैं

उसको मैंने कभी मुस्कुराते नहीं देखा हँसते देखा है लगातार

कभी रोते नहीं देखा शायद तुमने देखा हो

दीवारों के पार

पिता रात को लौटते हैं

पिए हुए दीवारों के पार फिर पीटने की आवाजें आती है, और फिर लगातार माँ की खिलखिलाहट जिसे बचपन में लोरी समझकर मैं सो जाती थी

(3) एक बार माँ ने भूख की शिकायत की तो उसे खाने के कमरे में बन्द कर दिया गया

फिर जब उसने अँधेरे को धिक्कारा तो उसे खुली हवा में लावारिस छोड़ दिया गया सूखे खेतों के भरोसे

जैसे खाना और खुली हवा एक साथ मयस्सर न थे खाना था तो हवा नहीं थी हवा थी तो खाना नहीं था

भला यह भी कोई चुनाव है माँ फिर हँसने लगी

(4) मैं एक बेचैन घर में रहती हूँ

दीवारों के बीच संवाद नहीं है। चीख-पुकार है- पिता की चीख है माँ की पुकार है

अलबत्ता जब पिता चीखते है, घर ख़ामोश रहता है जैसे मौत का सन्नाटा हो फिर माँ की पुकार

दीवारों के बीच गूँजती है जो हँसी से मिलती-जुलती है

जो बचपन में मुझे लोरी लगती थी

दीवारें अब ख़ामोश नहीं रहतीं

यह काण्ड अक्सर रात में होता है जब पिता पीकर लौटते है 

(5) मैं जानती हूँ रात में पिता को पिलाने वाले वही हैं जो दिन में मेरे पीछे 'किशोरी-किशोरी' कहते हुए लग जाते हैं जब मैं बाहर जाती हूँ

हाँ, मेरा घर का नाम किशोरी है। और मैं किशोरी ही लगती हूँ

न मैं बच्ची हूँ

न जवान हूँ

अभी मुझे पता नहीं चलता

कि मैं ख़ुद बहकती हूँ या बहका दी जाती हूँ

जब मैं वयस्क हो जाऊँगी तो रानी लक्ष्मीबाई की तरह/



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