माइकोप्लाज्मा, जगत- प्रोकैरियोटी (Kingdom-Prokaryotae) के सदस्य होते हैं, जिन्हें गण माइकोप्लाज्मार्टल्स (Order-Mycoplasmatales) के अन्तर्गत रखा जाता है। ये अपनी विशिष्ट संरचना के कारण मॉलीक्यूट्स के अन्तर्गत रखे जाते हैं। गण माइकोप्लाज्माटेल्स के अन्तर्गत कुल माइकोप्लाज्माटेसी के अन्तर्गत माइको प्लाज्मा और माइकोप्लाज्मा सदृश जीव-फाइटोप्लाज्मा (Phytoplasma) आते हैं। फाइटोप्लाज़्मा माइकोप्लाज्मा सदृश सूक्ष्मजीव संरचनाये हैं जो माइकोप्लाज्मा से कुछ भिन्न होते हैं। संरचना के दृष्टिकोण से फाइटोप्लाज्मा माइकोप्लाज़्मा से मिलते-जुलते मॉलीक्यूटस होते है जो भित्ति रहित पॉक केंद्रकी (Prokaryotic) कोशिकायें हैं। इनमें से कुछ कुंडलित संरचना वाली होती हैं जिन्हें स्पाइरोप्लाज्मा कहते हैं और कुछ गोल और लम्बी संरचना वाली होती हैं, उसे फाइटोप्लाज्मा कहते हैं। फाइटोप्लाज्मा केवल पौधों में रोग उत्पन्न करने वाली माइकोप्लाज़्मा सदृश संरचनायें होती हैं। वर्ष 1967 जीवाणुओं और विषाणुओं से भिन्न माना गया। इस प्रकार माइकोप्लाज्मा से पहले इस प्रकार के पादप रोगों को विषाणु जनित माना जाता था क्योंकि ये विषाणुओं जैसे रोग लक्षण उत्पन्न करते हैं। बाद में इसे संरचना के आधार पर जैसी संरचना जो पौधों में रोग उत्पन्न करती हैं, फाइटोप्लाज्मा कहलाती हैं। फाइटोप्लाज्मा जनित रोगों में एस्टर पीत रोग, धान का पीत वामनता रोग, नाशपाती का अपक्षय रोग, नारियल का पीला रोग और सेब का प्रचुरोद रोग आदि प्रमुख रोग हैं। इसी प्रकार स्पाइरोप्लाज्मा जनित रोगों में मक्का का कंठ रोग, सिट्स का स्टबबर्न रोग और हॉर्स रेडिस का मूल भंगुर रोग प्रमुख हैं।
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महत्वपूर्ण रोगों का संक्षिप्त विवरण (Brief description of important diseases)
बैंगन का लघुपत्र अथवा छोटा पत्ती रोग (Little-leaf of Brinjal)
भारत में इस रोग की पहचान सर्वप्रथम 1938 में कोयम्बटूर में किया गया था। इस रोग के कारण फसल की उपज में 90 प्रतिशत तक हानि होने का उल्लेख किया गया है।
रोग लक्षण (Symptoms)- इस रोम का मुख्य जाते हैं कि ऐसा लगता है कि माना तने से चिपके हो। संक्रामित पौधों के पत्ते छोटे होने के साथ-साथ, संकरे नरम और पीले रंग के र हैं और सम्पूर्ण पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है। सामान्यतः पौधे में फल नही लगते और यदि लगते हैं तो छोटे रह जाते हैं।
रोग कारक (Causal organism ) यह रोग फाइटोप्लाज़्मा द्वारा होता है। इस फाइटोप्लाज्मा का म अण्डाकार या गोलाकार कार्य के रूप में किया गया है, जिसका व्यास 40 से 300 नैनोमीटर होता है। इसमें दृढ़ केशिका भित्ति का आभाव होता है।
रोग चक्र (Disease cycle)- यह बैंगन की फसल और कुछ खरपतवार पर उत्तरजीवी रहता है। यह रोग वाहक कीट-हिशीमोनस फाइसिटिस द्वारा संचरित होता हैं। यह धतूरा, विनका रोजिया आदि पौधों पर भी रोग उत्पन्न करता है।
रोग प्रबंधन (Disease management)-
1. खेत में रोगी पौधा दिखाई देते ही उसे उखाड़कर जला देना चाहिये।
2. रोग ग्राही खरपतवार परपोषियों को नष्ट कर देना चाहिये।
3. रोग वाहक कीट का नियंत्रण कीटनाशक रसायन का छिड़काव करके करना चाहिये।
4. रोग का नियंत्रण टेट्रासाइक्लिन नामक ऐन्टीबायोटिक के छिड़काव द्वारा, छोटे स्तर पर किया जा सकता है।
5. सदैव रोग रोधी किस्मों को बोना चाहिये।
धान का पीला बौना रोग (Yellow dwarf of Paddy)
इस रोग को सर्वप्रथम 1910 में जापान में देखा गया था। भारत में यह रोग उड़ीसा, विहार, आंध्रप्रदेश और पश्चिमी बंगाल में बहुतायत से पाया जाता है। इस रोग से 90 प्रतिशत तक हानि की संभावना रहती है।
रोग लक्षण (Symptoms)-इस रोग का मुख्य लक्षण विशेष रूप से तरुण पत्तियों की हरिमा हीनता और उसका पीला पड़ जाना होता है। संक्रामित पत्तियाँ हल्के हरे से हल्के पीले रंग की हो जाती है। पौधा बौना रह जाता है और उसमें किल्ले (Tillers) अधिक निकलते हैं। बालियाँ नही निकलती या कम निकलती हैं और दाने कम पड़ते हैं।
रोग कारक (Causal organism) - यह रोग फाइटोप्लाज़्मा द्वारा होता है।
रोग चक्र (Disease cycle)—यह विभिन्न जंगली घासों पर रोग उत्पन्न करता है। धान के अतिरिक्त यह फाइटोप्लाज्मा एलोपेकूरस इंक्वैलिस (Alopecurus aequalis), ग्लाइसीरिया एक्यूटिफलोरा (Glyceria acutifions) आदि पौधों पर भी रोग उत्पन्न करता है। इस रोग को फैलाने वाले पाद-फुदकों में नीफोटट्टिक्स (Plant hopper Nephotettix) की लगभग सभी प्रजातियाँ रोग का संचरण करती हैं।
रोग प्रबंध (Disease management)-
1. रोगी पौधे के दिखाई देते ही उसे उखाड़कर जला देना चाहिये
2. कीट नाशकों का प्रयोग कर इसके रोग वाहकों को समाप्त कर देना चाहिये।
3. रोग रोधी किस्मों को उगाना चाहिये और खेत के आसपास खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिये।
नींबू का हरित रोग (Greening disease of citrus)
यह रोग सभी नींबू उत्पादक राज्यों यथा जम्मू हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में विशेष रूप से पाया जाता है।
रोग लक्षण (Symptoms) - संक्रमित पौधों की परिपक्व पत्तियों की शिरायें पीली पड़ जाती हैं और यह पीलापन, धीरे धीरे शिराओं के मध्य में भी फैल जाता है। ये पत्तियाँ, गर्मियों में झड़ जाती है और तना ऊपर से सूखना प्रारंभ हो जाता है। नई शाखाओं पर छोटी सीधी खड़ी हरिमाहीन पत्तियाँ निकलती हैं, जिनकी शिरायें हरी और पर्णफलक पर हरे धब्बे होते हैं। शाखाओं पर कलियों की संख्या अधिक होती है और पुष्प समय से पहले ● निकलते हैं। जड़ों की संख्या कम तथा पौधा बौना रह जाता है। फल कम और छोटे रह जाते हैं।
रोग कारक (Causal organism) - यह रोग फास्टीडियस वैस्कुलर बैक्टीरियम लिवैरोबैक्टर एसियाटिकम (Fastidius vascular bacterium=Liberobacter asiaticum) नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है।
रोग चक्र (Disease-cycle)- नींबू में हरित रोग पैदा करने वाले इस जीवाणु का संचरण सिट्रस सिल्ला
(Citrus psylla) नामक कीट द्वारा होता है।
रोग प्रबंध (Disease management)—
1. रोगी पौधों को उखाड़कर फेंक देना चाहिये।
2. रोगी पौधे से कायिक संवर्द्धन नही करना चाहिये ।
3. कीटनाशक रसायन के छिडकाव द्वारा कीटवाहक का नियंत्रण करना चाहिये।



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